TIRUKKURAL IN HINDI

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prasanna
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TIRUKKURAL IN HINDI

Post by prasanna » Fri Aug 29, 2008 12:50 pm

 
अध्याय  101.   निष्फल धन


1001


भर कर घर भर प्रचुर धन, जो करता नहिं भोग ।

धन के नाते मृतक है, जब है नहिं उपयोग ॥


1002


‘सब होता है अर्थ से’, रख कर ऐसा ज्ञान ।

कंजूसी के मोह से, प्रेत-जन्म हो मलान ॥

1003


लोलुप संग्रह मात्र का, यश का नहीं विचार ।

ऐसे लोभी का जनम, है पृथ्वी को भार ॥

1004


किसी एक से भी नहीं, किया गया जो प्यार ।

निज अवशेष स्वरूप वह, किसको करे विचार ॥

1005


जो करते नहिं दान ही, करते भी नहिं भोग ।

कोटि कोटि धन क्यों न हो, निर्धन हैं वे लोग ॥

1006


योग्य व्यक्ति को कुछ न दे, स्वयं न करता भोग ।

विपुल संपदा के लिये, इस गुण का नर रोग ॥

1007


कुछ देता नहिं अधन को, ऐसों का धन जाय ।

क्वाँरी रह अति गुणवती, ज्यों बूढ़ी हो जाय ॥


1008


अप्रिय जन के पास यदि, आश्रित हो संपत्ति ।

ग्राम-मध्य विष-वृक्ष ज्यों, पावे फल-संपत्ति ॥

      1009


प्रेम-भाव तज कर तथा, भाव धर्म से जन्य ।

आत्म-द्रोह कर जो जमा, धन हथियाते अन्य ॥


     1010


उनकी क्षणिक दरिद्रता, जो नामी धनवान ।

जल से खाली जलद का, है स्वभाव समान ॥



अध्याय 102. लज्जाशीलता

1011


लज्जित होना कर्म से, लज्जा रही बतौर ।

सुमुखी कुलांगना-सुलभ, लज्जा है कुछ और ॥

1012


अन्न वस्त्र इत्यादि हैं, सब के लिये समान ।

सज्जन की है श्रेष्ठता, होना लज्जावान ॥

1013


सभी प्राणियों के लिये, आश्रय तो है देह ।

रखती है गुण-पूर्णता, लज्जा का शुभ गेह ॥

1014


भूषण महानुभाव का, क्या नहिं लज्जा-भाव ।

उसके बिन गंभीर गति, क्या नहिं रोग-तनाव ॥

1015


लज्जित है, जो देख निज, तथा पराया दोष ।

उनको कहता है जगत, ‘यह लज्जा का कोष’ ॥

1016


लज्जा को घेरा किये, बिना सुरक्षण-योग ।

चाहेंगे नहिं श्रेष्ठ जन, विस्तृत जग का भोग ॥

1017


लज्जा-पालक त्याग दें, लज्जा के हित प्राण ।

लज्जा को छोड़ें नहीं, रक्षित रखने जान ॥

1018


अन्यों को लज्जित करे, करते ऐसे कर्म ।

उससे खुद लज्जित नहीं, तो लज्जित हो धर्म ॥

     1019


यदि चूके सिद्धान्त से, तो होगा कुल नष्ट ।

स्थाई हो निर्लज्जता, तो हों सब गुण नष्ट ॥

     1020


कठपुथली में सूत्र से, है जीवन-आभास ।

त्यों है लज्जाहीन में, चैतन्य का निवास ॥



अध्याय 103. वंशोत्कर्ष-विधान

1021


‘हाथ न खींचूँ कर्म से, जो कुल हित कर्तव्य ।

इसके सम नहिं श्रेष्ठता, यों है जो मन्तव्य ॥

1022


सत् प्रयत्न गंभीर मति, ये दोनों ही अंश ।

क्रियाशील जब हैं सतत, उन्नत होता वंश ॥

1023


‘कुल को अन्नत में करूँ’, कहता है दृढ बात ।

तो आगे बढ़ कमर कस, दैव बँटावे हाथ ॥

1024


कुल हित जो अविलम्ब ही, हैं प्रयत्न में चूर ।

अनजाने ही यत्न वह, बने सफलता पूर ॥

1025


कुल अन्नति हित दोष बिन, जिसका है आचार ।

बन्धु बनाने को उसे, घेर रहा संसार ॥

1026


स्वयं जनित निज वंश का, परिपालन का मान ।

अपनाना है मनुज को, उत्तम पौरुष जान ॥

1027


महावीर रणक्षेत्र में, ज्यों हैं जिम्मेदार ।

त्यों है सुयोग्य व्यक्ति पर, निज कुटुंब का भार ॥

1028


कुल-पालक का है नहीं, कोई अवसर खास ।

आलसवश मानी बने, तो होता है नाश ॥

      1029


जो होने देता नहीं, निज कुटुंब में दोष ।

उसका बने शरीर क्या, दुख-दर्दों का कोष ॥


     1030


योग्य व्यक्ति कुल में नहीं, जो थामेगा टेक ।

जड़ में विपदा काटते, गिर जाये कुल नेक ॥[/
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