TIRUKKURAL IN HINDI

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prasanna
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TIRUKKURAL IN HINDI

Post by prasanna » Thu Aug 28, 2008 8:09 am

 अध्याय  95.   औषध


941


वातादिक जिनको गिना, शास्त्रज्ञों ने तीन ।

बढ़ते घटते दुःख दें, करके रोगाधीन ॥

942


खादित का पचना समझ, फिर दे भोजन-दान ।

तो तन को नहिं चाहिये, कोई औषध-पान ॥

943


जीर्ण हुआ तो खाइये, जान उचित परिमाण ।

देहवान हित है वही, चिरायु का सामान ॥


944


जीर्ण कुआ यह जान फिर, खूब लगे यदि भूख ।

खाओ जो जो पथ्य हैं, रखते ध्यान अचूक ॥


945


करता पथ्याहार का, संयम से यदि भोग ।

तो होता नहिं जीव को, कोई दुःखद रोग ॥

946


भला समझ मित भोज का, जीमे तो सुख-वास ।

वैसे टिकता रोग है, अति पेटू के पास ॥

947


जाठराग्नि की शक्ति का, बिना किये सुविचार ।

यदि खाते हैं अत्याधिक, बढ़ते रोग अपार ॥

948


ठीक समझ कर रोग क्या, उसका समझ निदान ।

समझ युक्ति फिर शमन का, करना यथा विधान ॥

        949


रोगी का वय, रोग का, काल तथा विस्तार ।

सोच समझकर वैद्य को, करना है उपचार ॥

        950


रोगी वैद्य देवा तथा, तीमारदार संग ।

चार तरह के तो रहे, वैद्य शास्त्र के अंग ॥



अध्याय 96. कुलीनता


951


लज्जा, त्रिकरण-एकता, इन दोनों का जोड़ ।

सहज मिले नहिं और में, बस कुलीन को छोड़ ॥

952


सदाचार लज्जा तथा, सच्चाई ये तीन ।

इन सब से विचलित कभी, होते नहीं कुलीन ॥

953


सुप्रसन्न मुख प्रिय वचन, निंदा-वर्जन दान ।

सच्चे श्रेष्ठ कुलीन हैं, चारों का संस्थान ॥

954


कोटि कोटि धन ही सही, पायें पुरुष कुलीन ।

तो भी वे करते नहीं, रहे कर्म जो हीन ॥

955


हाथ खींचना ही पड़े, यद्यपि हो कर दीन ।

छोडें वे न उदारता, जिनका कुल प्राचीन ॥

956


पालन करते जी रहें, जो निर्मल कुल धर्म ।

यों जो हैं वे ना करें, छल से अनुचित कर्म ॥

957


जो जन बडे कुलीन हैं, उन पर लगा कलंक ।

नभ में चन्द्र-कलंक सम, प्रकटित हो अत्तंग ॥

958


रखते सुगुण कुलीन के, जो निकले निःस्नेह ।

उसके कुल के विषय में, होगा ही संदेह ॥

        959


अंकुर करता है प्रकट, भू के गुण की बात ।

कुल का गुण, कुल-जात की, वाणी करती ज्ञात ॥

        960


जो चाहे अपना भला, पकडे लज्जा-रीत ।

जो चाहे कुल-कानि को, सब से रहे विनीत ॥



अध्याय 97. मान


961


जीवित रहने के लिये, यद्यपि है अनिवार्य ।

फिर भी जो कुल-हानिकर, तज देना वे कार्य ॥

962


जो हैं पाना चाहते, कीर्ति सहित सम्मान ।

यश-हित भी करते नहीं, जो कुल-हित अपमान ॥

963


सविनय रहना चाहिये, रहते अति संपन्न ।

तन कर रहना चाहिये, रहते बड़ा विपन्न ॥

964


गिरते हैं जब छोड़कर, निज सम्मानित स्थान ।

नर बनते हैं यों गिरे, सिर से बाल समान ॥

965


अल्प घुंघची मात्र भी, करते जो दुष्काम ।

गिरि सम ऊँचे क्यों न हों, होते हैं बदनाम ॥

966


न तो कीर्ति की प्राप्ति हो, न हो स्वर्ग भी प्राप्त ।

निंदक का अनुचर बना, तो औ’ क्या हो प्राप्त ॥

967


निंदक का अनुचर बने, जीवन से भी हेय ।

‘ज्यों का त्यों रह मर गया’, कहलाना है श्रेय ॥

968


नाश काल में मान के, जो कुलीनता-सत्व ।

तन-रक्षित-जीवन भला, क्या देगा अमरत्व ॥

       969


बाल कटा तो त्याग दे, चमरी-मृग निज प्राण ।

उसके सम नर प्राण दें, रक्षा-हित निज मान ॥

        970


जो मानी जीते नहीं, होने पर अपमान ।

उनके यश को पूज कर, लोक करे गुण-गान ॥


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