TIRUKKURAL IN HINDI

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prasanna
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TIRUKKURAL IN HINDI

Post by prasanna » Thu Aug 28, 2008 9:07 am

अध्याय 98. महानता


971


मानव को विख्याति दे, रहना सहित उमंग ।

‘जीयेंगे उसके बिना’, है यों कथन कलक ॥

972


सभी मनुज हैं जन्म से, होते एक समान ।

गुण-विशेष फिर सम नहीं, कर्म-भेद से जान ॥

973


छोटे नहिं होते बड़े, यद्यपि स्थिति है उच्च ।

निचली स्थिति में भी बड़े, होते हैं नहिं तुच्छ ॥

974


एक निष्ठ रहती हुई, नारी सती समान ।

आत्म-संयमी जो रहा, उसका हो बहुमान ॥

975


जो जन महानुभव हैं, उनको है यह साध्य ।

कर चुकना है रीति से, जो हैं कार्य असाध्य ॥

976


छोटों के मन में नहीं, होता यों सुविचार ।

पावें गुण नर श्रेष्ठ का, कर उनका सत्कार ॥

977


लगती है संपन्नता, जब ओछों के हाथ ।

तब भी अत्याचार ही, करे गर्व के साथ ॥

978


है तो महानुभावता, विनयशील सब पर्व ।

अहम्मन्य हो तुच्छता, करती है अति गर्व ॥

        979


अहम्मन्यता-हीनता, है महानता बान ।

अहम्मन्यता-सींव ही, ओछापन है जान ॥

        980


दोषों को देना छिपा, है महानता-भाव ।

दोषों की ही घोषणा, है तुच्छत- स्वभाव ॥



अध्याय 99. सर्वगुण-पूर्णता

981


जो सब गुण हैं पालते, समझ योग्य कर्तव्य ।

उनकों अच्छे कार्य सब, सहज बने कर्तव्य ॥

982


गुण-श्रेष्ठता-लाभ ही, महापुरुष को श्रेय ।

अन्य लाभ की प्राप्ति से, श्रेय न कुछ भी ज्ञेय ॥

983


लोकोपकारिता, दया, प्रेम हया औ’ साँच ।

सुगुणालय के थामते, खंभे हैं ये पाँच ॥

984


वध-निषेध-व्रत-लाभ ही, तप को रहा प्रधान ।

पर-निंदा वर्जन रही, गुणपूर्णता महान ॥

985


विनयशीलता जो रही, बलवानों का सार ।

है रिपु-रिपुता नाश-हित, सज्जन का हथियार ॥

986


कौन कसौटी जो परख, जाने गुण-आगार ।

है वह गुण जो मान ले, नीचों से भी हार ॥


987


अपकारी को भी अगर, किया नहीं उपकार ।

होता क्या उपयोग है, हो कर गुण-आगार ॥

988


निर्धनता नर के लिये, होता नहिं अपमान ।

यदि बल है जिसको कहें, सर्व गुणों की खान ॥

        989


गुण-सागर के कूल सम, जो मर्यादा-पाल ।

मर्यादा छोड़े नहीं, यद्यपि युगान्त-काल ॥

        990


घटता है गुण-पूर्ण का, यदि गुण का आगार ।

तो विस्तृत संसार भी, ढो सकता नहिं भार ॥



अध्याय 100. शिष्टाचार


991


मिलनसार रहते अगर, सब लोगों को मान ।

पाना शिष्टाचार है, कहते हैं आसान ॥

992


उत्तम कुल में जन्म औ’, प्रेम पूर्ण व्यवहार ।

दोनों शिष्टाचार के, हैं ही श्रेष्ठ प्रकार ॥

993


न हो देह के मेल से, श्रेष्ठ जनों का मेल ।

आत्माओं के योग्य तो, हैं संस्कृति का मेल ॥

994


नीति धर्म को चाहते, जो करते उपकार ।

उनके शिष्ट स्वभाव को, सराहता संसार ॥

995


हँसी खेल में भी नहीं, निंदा करना इष्ट ।

पर-स्वभाव ज्ञाता रहें, रिपुता में भी शिष्ट ॥

996


शिष्टों के आधार पर, टिकता है संसार ।

उनके बिन तो वह मिले, मिट्टी में निर्धार ॥

997


यद्यपि हैं रेती सदृश, तीक्षण बुद्धि-निधान ।

मानव-संस्कृति के बिना, नर हैं वृक्ष समान ॥

998


मित्र न रह जो शत्रु हैं, उनसे भी व्यवहार ।
सभ्य पुरुष का नहिं किया, तो वह अधम विचार ॥

        999


जो जन कर सकते नहीं, प्रसन्न मन व्यवहार ।

दिन में भी तम में पड़ा, है उनका संसार ॥

      1000


जो है प्राप्त असभ्य को, धन-सम्पत्ति अमेय ।

कलश-दोष से फट गया, शुद्ध दूध सम ज्ञेय ॥[
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