TIRUKKURAL IN HINDI

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prasanna
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TIRUKKURAL IN HINDI

Post by prasanna » Mon Sep 01, 2008 4:59 am

अध्याय  104.   कृषि


1031


कृषि-अधीन ही जग रहा, रह अन्यों में घुर्ण ।

सो कृषि सबसे श्रेष्ठ है, यद्यपि है श्रमपूर्ण ॥

1032


जो कृषि की क्षमता बिना, करते धंधे अन्य ।

कृषक सभी को वहन कर, जगत-धुरी सम गण्य ॥

1033


जो जीवित हैं हल चला, उनका जीवन धन्य ।

झुक कर खा पी कर चलें, उनके पीचे अन्य ॥

1034


निज नृप छत्रच्छाँह में, कई छत्रपति शान ।

छाया में पल धान की, लाते सौम्य किसान ॥


1035


निज कर से हल जोत कर, खाना जिन्हें स्वभाव ।

माँगें नहिं, जो माँगता, देंगे बिना दुराव ॥

1036


हाथ खिँचा यदि कृषक का, उनकी भी नहिं टेक ।

जो ऐसे कहते रहे ‘हम हैं निस्पृह एक’ ॥

1037


एक सेर की सूख यदि, पाव सेर हो धूल ।

मुट्‍ठी भर भी खाद बिन, होगी फ़सल अतूल ॥

1038


खेत जोतने से अधिक, खाद डालना श्रेष्ठ ।

बाद निराकर सींचना, फिर भी रक्षण श्रेष्ठ ॥

      1039


चल कर यदि देखे नहीं, मालिक दे कर ध्यान ।

गृहिणी जैसी रूठ कर, भूमि करेगी मान ॥

      1040


‘हम दरिद्र हैं’ यों करे, सुस्ती में आलाप ।

भूमि रूप देवी उसे, देख हँसेगी आप ॥



अध्याय 105. दरिद्रता


1041


यदि पूछो दारिद्र्य सम, दुःखद कौन महान ।

तो दुःखद दारिद्र्य सम, दारिद्रता ही जान ॥

1042


निर्धनता की पापिनी, यदि रहती है साथ ।

लोक तथा परलोक से, धोना होगा हाथ ॥

1043


निर्धनता के नाम से, जो है आशा-पाश ।

कुलीनता, यश का करे,  एक साथ ही नाश ॥

1044


निर्धनता पैदा करे, कुलीन में भी ढील ।

जिसके वश वह कह उठे, हीन वचन अश्लील ॥

1045


निर्धनता के रूप में, जो है दुख का हाल ।

उसमें होती है उपज, कई तरह की साल ॥

1046


यद्यपि अनुसंधान कर, कहे तत्व का अर्थ ।

फिर भी प्रवचन दिन का, हो जाता है व्यर्थ ॥

1047


जिस दरिद्र का धर्म से, कुछ भी न अभिप्राय ।

जननी से भी अन्य सम, वह तो देखा जाय ॥

1048


कंगाली जो कर चुकी, कल मेरा संहार ।

अयोगी क्या आज भी, करने उसी प्रकार ॥

      1049


अन्तराल में आग के, सोना भी है साध्य ।

आँख झपकना भी ज़रा, दारिद में नहिं साध्य ॥

      1050


भोग्य-हीन रह, दिन का, लेना नहिं सन्यास ।

माँड-नमक का यम बने, करने हित है नाश ॥



अध्याय 106. याचना


1051


याचन करने योग्य हों, तो माँगना ज़रूर ।

उनका गोपन-दोष हो, तेरा कुछ न कसूर ॥

1052


यचित चीज़ें यदि मिलें, बिना दिये दुख-द्वन्द ।

याचन करना मनुज को, देता है आनन्द ॥

1053


खुला हृदय रखते हुए, जो मानेंगे मान ।

उनके सम्मुख जा खड़े, याचन में भी शान ॥

1054


जिन्हें स्वप्न में भी ‘नहीं’, कहने की नहिं बान ।

उनसे याचन भी रहा, देना ही सम जान ॥

1055


सम्मुख होने मात्र से, बिना किये इनकार ।

दाता हैं जग में, तभी, याचन है स्वीकार ॥

1056


उन्हें देख जिनको नहीं, ‘ना’, कह सहना कष्ट ।

दुःख सभी दारिद्र्य के, एक साथ हों नष्ट ॥

1057


बिना किये अवहेलना, देते जन को देख ।

मन ही मन आनन्द से, रहा हर्ष-अतिरेक ॥

1058


शीतल थलयुत विपुल जग, यदि हो याचक-हीन ।

कठपुथली सम वह रहे, चलती सूत्राधीन ॥

      1059


जब कि प्रतिग्रह चाहते, मिलें न याचक लोग ।

दाताओं को क्या मिले, यश पाने का योग ॥

     1060


याचक को तो चाहिये, ग्रहण करे अक्रोध ।

निज दरिद्रता-दुःख ही, करे उसे यह बोध ॥


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