TIRUKKURAL IN HINDI

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prasanna
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TIRUKKURAL IN HINDI

Post by prasanna » Fri Sep 05, 2008 6:01 pm

 भाग–३: काम-  कांड.


 अध्याय  109.   सौन्दर्य की पीड़ा

1081


क्या यह है देवांगना, या सुविशेष मयूर ।

या नारी कुंड़ल-सजी, मन है भ्रम में चूर ॥

1082


दृष्टि मिलाना सुतनु का, होते दृष्टि-निपान ।

हो कर खुद चँडी यथा, चढ़ आये दल साथ ॥

1083


पहले देखा है नहीं, अब देखा यम कौन ।

लडते विशाल नेत्रयुत, वह है स्त्री-गुण-भौन ॥

1084


मुग्धा इस स्त्री-रत्न के, दिखी दृगों की रीत ।

खाते दर्शक-प्राण हैं, यों है गुण विपरीत ॥

1085


क्या यम है, या आँख है, या है मृगी सुरंग ।

इस मुग्धा की दृष्टि में, है तीनों का ढंग ॥

1086


ऋजु हो टेढ़ी भृकुटियाँ, मना करें दे छाँह ।

तो इसकी आँखें मुझे, हिला, न लेंगी आह ॥

1087


अनत कुचों पर नारि के, पड़ा रहा जो पाट ।

मद-गज के दृग ढ़ांकता, मुख-पट सम वह ठाट ॥

1088


उज्जवल माथे से अहो, गयी शक्ति वह रीत ।

भिड़े बिना रण-भूमि में, जिससे रिपु हों भीत ॥

         1089


सरल दृष्टि हरिणी सदृश, औ’ रखती जो लाज ।

उसके हित गहने बना, पहनाना क्या काज ॥

         1090


हर्षक है केवल उसे, जो करता है पान ।

दर्शक को हर्षक नहीं, मधु तो काम समान ॥



अध्याय 110. संकेत समझना

1091


इसके कजरारे नयन, रखते हैं दो दृष्टि ।

रोग एक, उस रोग की, दवा दूसरी दृष्टि ॥

1092


आंख बचा कर देखना, तनिक मुझे क्षण काल ।

अर्द्ध नहीं, संयोग का, उससे अधिक रसाल ॥

1093


देखा, उसने देख कर, झुका लिया जो सीस ।

वह क्यारी में प्रेम की, देना था जल सींच ॥

1094


मैं देखूँ तो डालती, दृष्टि भूमि की ओर ।

ना देखूँ तो देख खुद, मन में रही हिलोर ॥

1095


सीधे वह नहीं देखती, यद्यपि मेरी ओर ।

सुकुचाती सी एक दृग, मन में रही हिलोर ॥

1096


यदुअपि वह अनभिज्ञ सी, करती है कटु बात ।

बात नहीं है क्रुद्ध की, झट होती यह ज्ञात ॥

1097


रुष्ट दृष्टि है शत्रु सम, कटुक वचन सप्रीति ।

दिखना मानों अन्य जन, प्रेमी जन की रीति ॥

1098


मैं देखूँ तो, स्निग्ध हो, करे मंद वह हास ।

सुकुमारी में उस समय, एक रही छवी ख़ास ॥

         1099


उदासीन हो देखना, मानों हो अनजान ।

प्रेमी जन के पास ही, रहती ऐसी बान ॥

         1100


नयन नयन मिल देखते, यदि होता है योग ।

वचनों का मूँह से कहे, है नहिं कुछ उपयोग ॥



अध्याय 111. संयोग का आनन्द

1101


पंचेन्द्रिय सुख, रूप औ’, स्पर्श गंध रस शब्द ।

उज्ज्वल चूड़ी से सजी, इसमें सब उपलब्ध ॥

1102


रोगों की तो है दवा, उनसे अलग पदार्थ ।

जो सुतनू का रोग है, दवा वही रोगार्थ ॥

1103


निज दयिता मृदु स्कंध पर, सोते जो आराम ।

उससे क्या रमणीय है, कमल-नयन का धाम ॥

1104


हटने पर देती जला, निकट गया तो शीत ।

आग कहाँ से पा गयी, बाला यह विपरीत ॥

1105


इच्छित ज्यों इच्छित समय, आकर दें आनन्द ।

पुष्पालंकृत केशयुत, हैं बाला के स्कंध ॥

1106


लगने से हर बार है, नवजीवन का स्पंद ।

बने हुए हैं अमृत के, इस मुग्धा के स्कंध ॥

1107


स्वगृह में स्वपादर्थ का, यथा बाँट कर भोग ।

रहा गेहुँए रंग की, बाला से संयोग ॥

1108


आलिंगन जो यों रहा, बीच हवा-गति बंद ।

दोनों को, प्रिय औ’ प्रिया, देता है आनन्द ॥

         1109


मान मनावन मिलनसुख, ये जो हैं फल-भोग ।

प्रेम-पाश में जो पड़े, उनको है यह भोग ॥


      1110


होते होते ज्ञान के, यथा ज्ञात अज्ञान ।

मिलते मिलते सुतनु से, होता प्रणय-ज्ञान ॥


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