TIRUKKURAL IN HINDI

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prasanna
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TIRUKKURAL IN HINDI

Post by prasanna » Wed Sep 10, 2008 4:08 am

अध्याय  112.   सौन्दर्य वर्णन


1111


रे अनिच्च तू धन्य है, तू है कोमल प्राण ।

मेरी जो है प्रियतमा, तुझसे मृदुतर जान ॥

1112


बहु-जन-दृष्ट सुमन सदृश, इसके दृग को मान ।

रे मन यदि देखो सुमन, तुम हो भ्रमित अजान ॥


1113


पल्लव तन, मोती रदन, प्राकृत गंध सुगंध ।

भाला कजरारा नयन, जिसके बाँस-स्कंध ॥


1114


कुवलय दल यदि देखता, सोच झुका कर सीस ।

इसके दृग सम हम नहीं, होती उसको खीस ॥

1115


धारण किया अनिच्च को, बिना निकाले वृन्त ।

इसकी कटि हिन ना बजे, मंगल बाजा-वृन्द ॥

1116


महिला मुख औ’ चन्द्र में, उड्डगण भेद न जान ।

निज कक्षा से छूट कर, होते चलायमान ॥

1117


क्षय पाकर फिर पूर्ण हो, शोभित रहा मयंक ।

इस नारी के वदन पर, रहता कहाँ कलंक ॥

1118


इस नारी के वदन सम, चमक सके तो चाँद ।

प्रेम-पात्र मेरा बने, चिरजीवी रह चाँद ॥

      1119


सुमन-नयन युत वदन सम, यदि होने की चाह ।

सबके सम्मुख चन्द्र तू चमक न बेपरवाह ॥

      1120


मृदु अनिच्च का फूल औ’, हंसी का मृदु तूल ।

बाला के मृदु पाद हित, रहे गोखरू शूल ॥



अध्याय 113. प्रेम-प्रशंसा


1121


मधुर भाषिणी सुतुनु का, सित रद निःसृत नीर ।

यों लगता है मधुर वह, ज्यों मधु-मिश्रित क्षीर ॥

1122


जैसा देही देह का, होता है सम्बन्ध ।

वैसा मेरे, नारि के, बीच रहा सम्बन्ध ॥

1123


पुतली में पुतली अरी, हट जाओ यह जान ।

मेरी ललित ललाटयुत, प्यारी को नहिं स्थान ॥

1124


जीना सम है प्राण हित, बाला, जब संयोग ।

मरना सम उसके लिये, होता अगर वियोग ॥

1125


लड़ते दृग युत बाल के, गुण यदि जाऊँ भूल ।

तब तो कर सकता स्मरण, पर जाता नहिं भूल ॥

1126


दृग में से निकलें नहीं, मेरे सुभग सुजान ।

झपकी लूँ तो हो न दुख, वे हैं सूक्ष्म प्राण ॥


1127


यों विचार कर नयन में, करते वास सुजान ।

नहीं आंजतीं हम नयन, छिप जायेंगे जान ॥

1128


यों विचार कर हृदय में, करते वास सुजान ।

खाने से डर है गरम, जल जायेंगे जान ॥

     1129


झपकी लूँ तो ज्ञात है, होंगे नाथ विलीन ।

पर इससे पुरजन उन्हें, कहते प्रेम विहीन ॥

      1130


यद्यपि दिल में प्रिय सदा, रहे मज़े में लीन ।

पुरजन कहते तज चले, कहते प्रेम विहीन ॥



अध्याय 114. लज्जा-त्याग-कथन


1131


जो चखने पर प्रेम रस, सहें वेदना हाय ।

‘मडल’-सुरक्षा के बिना, उन्हें न सबल सहाय ॥

1132


आत्मा और शरीर भी, सह न सके जो आग ।

चढ़े ‘मडल’ पर धैर्य से, करके लज्जा त्याग ॥

1133


पहले मेरे पास थीं, सुधीरता और लाज ।

कामी जन जिसपर चढ़ें, वही ‘मडल’ है आज ॥

1134


मेरी थी लज्जा तथा, सुधीरता की नाव ।

उसे बहा कर ले गया, भीषण काम-बहाव ॥

1135


माला सम चूड़ी सजे, जिस बाला के हाथ ।

उसने संध्या-विरह-दुख, दिया ‘मडल’ के साथ ॥

1136


कटती मुग्धा की वजह, आँखों में ही रात ।

अर्द्ध-रात्रि में भी ‘मडल’, आता ही है याद ॥

1137


काम-वेदना जलधि में, रहती मग्न यथेष्ट ।

फिर भी ‘मडल’ न जो चढे, उस स्त्री से नहिं श्रेष्ठ ॥

1138


संयम से रहती तथा, दया-पात्र अति वाम ।

यह न सोच कर छिप न रह, प्रकट हुआ है काम ॥

      1139


मेरा काम यही समझ, सबको वह नहिं ज्ञात ।

नगर-वीथि में घूमता, है मस्ती के साथ ॥

      1140


रहे भुक्त-भोगी नहीं, यथा चुकी हूँ भोग ।

हँसते मेरे देखते, बुद्धि हीन जो लोग ॥



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