TIRUKKURAL IN HINDI

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prasanna
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TIRUKKURAL IN HINDI

Post by prasanna » Thu Sep 11, 2008 2:47 pm

 अध्याय  115.   प्रवाद-जताना


1141


प्रचलन हुआ प्रवाद का, सो टिकता प्रिय प्राण ।

इसका मेरे भाग्य से, लोगों को नहिं ज्ञान ॥

1142


सुमन-नयन-युत बाल की, दुर्लभता नहिं जान ।

इस पुर ने अफवाह तो, की है मुझे प्रदान ॥

1143


क्या मेरे लायक नहीं, पुरजन-ज्ञात प्रवाह ।

प्राप्त किये बिन मिलन तो, हुई प्राप्त सी बात ॥

1144


पुरजन के अपवाद से, बढ़ जाता है काम ।

घट जायेगा अन्यथा, खो कर निज गुण-नाम ॥

1145


होते होते मस्त ज्यों, प्रिय लगता मधु-पान ।

हो हो प्रकट प्रवाद से, मधुर काम की बान ॥

1146


प्रिय से केवल एक दिन, हुई मिलन की बात ।

लेकिन चन्द्रग्रहण सम, व्यापक हुआ प्रवाद ॥

1147


पुरजन-निंदा खाद है, माँ का कटु वच नीर ।

इनसे पोषित रोग यह, बढ़ता रहा अधीर ॥

1148


काम-शमन की सोचना, कर अपवाद प्रचार ।

अग्नि-शमन घी डाल कर, करना सदृश विचार ॥

      1149


अपवादें से क्यों डरूँ, जब कर अभय प्रदान ।

सब को लज्जित कर गये, छोड़ मुझे प्रिय प्राण ॥

      1150


निज वांछित अपवाद का, पुर कर रहा प्रचार ।

चाहूँ तो प्रिय नाथ भी, कर देंगे उपकार ॥



अध्याय 116. विरह-वेदना


1151


अगर बिछुड़ जाते नहीं, मुझे जताओ नाथ ।

जो जियें उनसे कहो, झट फिरने की बात ॥

1152


पहले उनकी दृष्टि तो, देती थी सुख-भोग ।

विरह-भीति से दुखद है, अब उनका संयोग ॥

1153


विज्ञ नाथ का भी कभी, संभव रहा प्रवास ।

सो करना संभव नहीं, इनपर भी विश्वास ॥

1154


छोड़ चलेंगे यदि सदय, कर निर्भय का घोष ।

जो दृढ़-वच विश्वासिनी, उसका है क्या दोष ॥

1155


बचा सके तो यों बचा, जिससे चलें न नाथ ।

फिर मिलना संभव नहीं, छोड़ गये यदि साथ ॥

1156


विरह बताने तक हुए, इतने निठुर समर्थ ।

प्रेम करेंगे लौट कर, यह आशा है व्यर्थ ॥

1157


नायक ने जो छोड़ कर, गमन किया, वह बात ।

वलय कलाई से पतित, क्या न करें विख्यात ॥

1158


उस पुर में रहना दुखद, जहाँ न साथिन लोग ।

उससे भी बढ़ कर दुखद, प्रिय से रहा वियोग ॥

      1159


छूने पर ही तो जला, सकती है, बस आग ।

काम-ज्वर सम वह जला, सकती क्या, कर त्याग ॥

      1160


दुखद विरह को मानती, चिन्ता; व्याधि न नेक ।

विरह-वेदना सहन कर, जीवित रहीं अनेक ॥



अध्याय 117. विरह-क्षमा की व्यथा


1161


यथा उलीचे सोत का, बढ़ता रहे बहाव ।

बढ़ता है यह रोग भी, यदि मैं करूँ छिपाव ॥

1162


गोपन भी इस रोग का, है नहिं वश की बात ।

कहना भी लज्जाजनक, रोगकार से बात ॥

1163


मेरी दुबली देह में, प्राणरूप जो डांड ।

लटके उसके छोर में, काम व लज्जा कांड ॥

1164


काम-रोग का तो रहा, पारावार अपार ।

पर रक्षक बेड़ा नहीं, उसको करने पार ॥

1165


जो देते हैं वेदना, रह कर प्रिय जन, खैर ।

क्या कर बैठेंगे अहो, यदि रखते हैं वैर ॥

1166


जो है, बस, यह काम तो, सुख का पारावार ।

पीडा दे तो दुःख है, उससे बड़ा अपार ॥


1167


पार न पाती पैर कर, काम-समुद्र महान ।

अर्द्ध रात्रि में भी निविड़, रही अकेली जान ॥

1168


सुला जीव सब को रही, दया-पात्र यह रात ।

इसको मुझको छोड़ कर, और न कोई साथ ॥

      1169


ये रातें जो आजकल, लम्बी हुई अथोर ।

निष्ठुर के नैष्ठुर्य से, हैं खुद अधिक कठोर ॥

      1170


चल सकते हैं प्रिय के यहाँ, यदि झट हृदय समान ।

नहीं तैरते बाढ़ में, यों मेरे दृग, जान ॥


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