TIRUKKURAL IN HINDI

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prasanna
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TIRUKKURAL IN HINDI

Post by prasanna » Fri Sep 12, 2008 5:32 am

अध्याय  118.   नेत्रों का आतुरता से क्षय


1171


अब राते हैं क्यों नयन, स्वयं दिखा आराध्य ।

मुझे हुआ यह रोग है, जो बन गया असाध्य ॥

1172


सोचे समझे बिन नयन, प्रिय को उस दिन देख ।

अब क्यों होते हैं व्यक्ति, रखते कुछ न विवेक ॥


1173


नयनों ने देखा स्वयं, आतुरता के साथ ।

अब जो रोते हैं स्वयं, है हास्यास्पद बात ॥

1174


मुझमें रुज उत्पन्न कर, असाध्य औ’ अनिवार्य ।

सूख गये, ना कर सके, दृग रोने का कार्य ॥

1175


काम-रोग उत्पन्न कर, सागर से विस्तार ।

नींद न पा मेरे नयन, सहते दुःख अपार ॥

1176


ओहो यह अति सुखद है, मुझको दुख में डाल ।

अब ये दृग सहते स्वयं, यह दुख, हो बेहाल ॥

1177


दिल पसीज, थे देखते, सदा उन्हें दृग सक्त ।

सूख जाय दृग-स्रोत अब, सह सह पीड़ा सख्त ॥

1178


वचन मात्र से प्रेम कर, दिल से किया न प्रेम ।

उस जन को देखे बिना, नेत्रों को नहिं क्षेम ॥

      1179


ना आवें तो नींद नहिं, आवें, नींद न आय ।

दोनों हालों में नयन, सहते हैं अति हाय ॥

      1180


मेरे सम जिनके नयन, पिटते ढोल समान ।

उससे पुरजन को नहीं, कठिन भेद का ज्ञान ॥



अध्याय 119. पीलापन-जनित पीड़ा


1181


प्रिय को जाने के लिये, सम्मति दी उस काल ।

अब जा कर किससे कहूँ, निज पीलापन-हाल ॥

1182


पीलापन यह गर्व कर, ‘मैं हूँ उनसे प्राप्त’ ।

चढ़ कर मेरी देह में, हो जाता है व्याप्त ॥

1183


पीलापन औ’ रोग का, करके वे प्रतिदान ।

मेरी छवि औ’ लाज का, ले कर चले सुदान ॥

1184


उनके गुण का स्मरण कर, करती हूँ गुण-गान ।

फिर भी पीलापन चढ़ा, तो क्या यह धोखा न ॥

1185


वह देखो, जाते बिछुड़, मेरे प्रियतम आप्त ।

यह देखो, इस देह पर, पीलापन है व्याप्त ॥

1186


दीपक बुझने की यथा, तम की जो है ताक ।

प्रिय-आलिंगन ढील पर, पैलापन की ताक ॥

1187


आलिंगन करके रही, करवट बदली थोर ।

उस क्षण जम कर छा गया, पीलापन यह घोर ॥

1188


‘यह है पीली पड़ गयी’, यों करते हैं बात ।

इसे त्याग कर वे गये, यों करते नहिं बात ॥

      1189


मुझे मना कर तो गये, यदि सकुशल हों नाथ ।

तो मेरा तन भी रहे, पीलापन के साथ ॥

      1190


अच्छा है पाना स्वयं, पीलापन का नाम ।

प्रिय का तजना बन्धुजन, यदि न करें बदनाम ॥



अध्याय 120. विरह-वेदनातिरेक


1191


जिससे अपना प्यार है, यदि पाती वह प्यार ।

बीज रहित फल प्रेम का, पाती है निर्धार ॥

1192


जीवों का करता जलद, ज्यों जल दे कर क्षेम ।

प्राण-पियारे का रहा, प्राण-प्रिया से प्रेम ॥

1193


जिस नारी को प्राप्त है, प्राण-नाथ का प्यार ।

‘जीऊँगी’ यों गर्व का, उसको है अधिकार ॥

1194


उसकी प्रिया बनी नहीं, जो उसका है प्रेय ।

तो बहुमान्या नारि भी, पुण्यवति नहिं ज्ञेय ॥

1195


प्यार किया मैंने जिन्हें, यदि खुद किया न प्यार ।

तो उनसे क्या हो सके, मेरा कुछ उपकार ॥

1196


प्रेम एक-तरफ़ा रहे, तो है दुखद अपार ।

दोय तरफ़ हो तो सुखद, ज्यों डंडी पर भार ॥

1197


जम कर सक्रिय एक में, रहा मदन बेदर्द ।

क्या वह समझेगा नहीं, मेरा दुःख व दर्द ॥

1198


प्रियतम से पाये बिना, उसका मधुमय बैन ।

जग में जीती स्त्री सदृश, कोई निष्ठुर है न ॥

      1199


प्रेम रहित प्रियतम रहे, यद्यपि है यह ज्ञात ।

कर्ण मधुर ही जो मिले, उनकी कोई बात ॥

      1200


प्रेम हीन से कठिन रुज, कहने को तैयार ।

रे दिल ! तू चिरजीव रह ! सुखा समुद्र अपार ॥




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