TIRUKKURAL IN HINDI

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prasanna
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TIRUKKURAL IN HINDI

Post by prasanna » Mon Sep 15, 2008 6:45 am

अध्याय  121.  स्मरण में एकान्तता-दुःख


1201


स्मरण मात्र से दे सके, अक्षय परमानन्द ।

सो तो मधु से काम है, बढ़ कर मधुर अमन्द ॥

1202


दुख-नाशक उसका स्मरण, जिससे है निज प्रेम ।

जो सुखदायक ही रहा, किसी हाल में प्रेम ॥

1203


छींका ही मैं चाहती, छींक गयी दब साथ ।

स्मरण किया ही चाहते, भूल गये क्या नाथ ॥

1204


उनके दिल में क्या रहा, मेरा भी आवास ।

मेरे दिल में, ओह, है, उनका सदा निवास ॥

1205


निज दिल से मुझको हटा, कर पहरे का साज़ ।

मेरे दिल आते सदा, आती क्या नहिं लाज ॥

1206


मिलन-दिवस की, प्रिय सहित, स्मृति से हूँ सप्राण ।

उस स्मृति के बिन किस तरह, रह सकती सप्राण ॥


1207


मुझे ज्ञात नहिं भूलना, हृदय जलाती याद ।

भूलूँगी मैं भी अगर, जाने क्या हो बाद ॥

1208


कितनी ही स्मृति मैं करूँ, होते नहिं नाराज़ ।

करते हैं प्रिय नाथ तो, इतना बड़ा लिहाज़ ॥

      1209


‘भिन्न न हम’, जिसने कहा, उसकी निर्दय बान ।

सोच सोच चलते बने, मेरे ये प्रिय प्राण ॥

      1210


बिछुड़ गये संबद्ध रह, जो मेरे प्रिय कांत ।

जब तक देख न लें नयन, डूब न, जय जय चांद ॥



अध्याय 122. स्वप्नावस्था का वर्णन


1211


प्रियतम का जो दूत बन, आया स्वप्नाकार ।

उसका मैं कैसे करूँ, युग्य अतिथि-सत्कार ॥

1212


यदि सुन मेरी प्रार्थना, दृग हों निद्रावान ।

दुख सह बचने की कथा, प्रिय से कहूँ बखान ॥

1213


जाग्रत रहने पर कृपा, करते नहीं सुजान ।

दर्शन देते स्वप्न में, तब तो रखती प्राण ॥

1214


जाग्रति में करते नहीं, नाथ कृपा कर योग ।

खोज स्वप्न ने ला दिया, सो उसमें सुख-भोग ॥

1215


आँखों में जब तक रहे, जाग्रति में सुख-भोग ।

सपने में भी सुख रहा, जब तक दर्शन-योग ॥

1216


यदि न रहे यह जागरण, तो मेरे प्रिय नाथ ।

जो आते हैं स्वप्न में, छोड़ न जावें साथ ॥


1217


कृपा न कर जागरण में, निष्ठुर रहे सुजन ।

पीड़ित करते किसलिये, मुझे स्वप्न में प्राण ॥

1218


गले लगाते नींद में, पर जब पडती जाग ।

तब दिल के अन्दर सुजन, झट जाते हैं भाग ॥

      1219


जाग्रति में अप्राप्त को, कोसेंगी वे वाम ।

जिनके प्रिय ने स्वप्न में, मिल न दिया आराम ॥

      1220


यों कहते प्रिय का मुझे, जाग्रति में नहिं योग ।

सपने में ना देखते, क्या इस पुर के लोग ॥



अध्याय 123.संध्या दर्शन से

1221


तेरी, सांझ, चिरायु हो, तू नहिं संध्याकाल ।

ब्याह हुओं की जान तू, लेता अन्तिम काल ।

1222


तेरी, सांझ, चिरायु हो, तू निष्प्रभ विभ्रान्त ।

मेरे प्रिय के सम निठुर, है क्या तेरा कान्त ॥

1223


कंपित संध्या निष्प्रभा, मुझको बना विरक्त ।

आती है देती मुझे, पीड़ा अति ही सख्त ॥

1224


वध करने के स्थान में, ज्यों आते जल्लाद ।

त्यों आती है सांझ भी, जब रहते नहिं नाथ ॥

1225


मैंने क्या कुछ कर दिया, प्रात: का उपकार ।

वैसे तो क्या कर दिया, संध्या का उपकार ॥

1226


पीड़ित करना सांझ का, तब था मुझे न ज्ञात ।

गये नहीं थे बिछुड़कर, जब मेरे प्रिय नाथ ॥

1227


काम-रोग तो सुबह को, पा कर कली-लिवास ।

दिन भर मुकुलित, शाम को, पाता पुष्य-विकास ॥

1228


दूत बनी है सांझ का, जो है अनल समान ।

गोप-बाँसुरी है, वही, घातक भी सामान ॥

     1229


जब आवेगी सांझ बढ़, करके मति को घूर्ण ।

सारा पुर मति-घूर्ण हो, दुख से होवे चूर्ण ॥

     1230


भ्रांतिमती इस सांझ में, अब तक बचती जान ।

धन-ग्राहक का स्मरण कर, चली जायगी जान ॥
prasanna

LEAD, KINDLY LIGHT. LOVE IS GOD, LOVE IS OCEAN, " Love Is Eternal. " LIVE TO LOVE TO LIVE.

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