TIRUKKURAL IN HINDI

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prasanna
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TIRUKKURAL IN HINDI

Post by prasanna » Tue Sep 16, 2008 9:26 am

अध्याय  124.   अंगच्छवि-नाश


1231


प्रिय की स्मृति में जो तुझे, दुख दे गये सुदूर ।

रोते नयन सुमन निरख, लज्जित हैं बेनूर ॥


1232


पीले पड़ कर जो नयन, बरस रहे हैं नीर ।

मानों कहते निठुरता, प्रिय की जो बेपीर ॥

1233


जो कंधे फूल रहे, जब था प्रिय-संयोग ।

मानों करते घोषणा, अब है दुसह वियोग ॥

1234


स्वर्ण वलय जाते खिसक, कृश हैं कंधे पीन ।

प्रिय-वियोग से पूर्व की, छवि से हैं वे हीन ॥

1235


वलय सहित सौन्दर्य भी, जिन कंधों को नष्ट ।

निष्ठुर के नैष्ठुर्य को, वे कहते हैं स्पष्ट ॥

1236


स्कंध शिथिल चूड़ी सहित, देख मुझे जो आप ।

कहती हैं उनको निठुर, उससे पाती ताप ॥

1237


यह आक्रान्दन स्कंध का, जो होता है क्षाम ।

सुना निठुर को रे हृदय, पाओ क्यों न सुनाम ॥

1238


आलिंगन के पाश से, शिथिल किये जब हाथ ।

तत्क्षण पीला पड गया, सुकुमारी का माथ ॥

         1239


ज़रा हवा जब घुस गयी, आलिंगन के मध्य ।

मुग्धा के पीले पड़े, शीत बड़े दृग सद्य ॥

         1240


उज्ज्वल माथे से जनित, पीलापन को देख ।

पीलापन को नेत्र के, हुआ दुःख-अतिरेक ॥



अध्याय 125. हृदय से कथन

1241


रोग-शमन हित रे हृदय, जो यह हुआ असाध्य ।

क्या न कहोगे सोच कर, कोई औषध साध्य ॥

1242


हृदय ! जिओ तुम, नाथ तो, करते हैं नहिं प्यार ।

पर तुम होते हो व्यथित, यह मूढ़ता अपार ॥

1243


रे दिल ! बैठे स्मरण कर, क्यों हो दुख में चूर ।

दुःख-रोग के जनक से, स्नेह-स्मरण है दूर ॥

1244


नेत्रों को भी ले चलो, अरे हृदय, यह जान ।

उनके दर्शन के लिये, खाते मेरी जान ॥

1245


यद्यपि हम अनुरक्त हैं, वे हैं नहिं अनुरक्त ।

रे दिल, यों निर्मम समझ, हो सकते क्या त्यक्त ॥

1246


जब प्रिय देते मिलन सुख, गया नहीं तू रूठ ।

दिल, तू जो अब क्रुद्ध है, वह है केवल झूठ ॥

1247


अरे सुदिल, तज काम को, या लज्जा को त्याग ।

मैं तो सह सकती नहीं, इन दोनों की आग ॥

1248


रे मेरे दिल, यों समझ, नहीं दयार्द्र सुजान ।

बिछुड़े के पीछे लगा, चिन्ताग्रस्त अजान ॥

1249


तेरे अन्दर जब रहा, प्रियतम का आवास ।

रे दिल, उनका स्मरण कर, जावे किसके पास ॥

1250


फिर न मिले यों तज दिया, उनको दिल में ठौर ।

देने से मैं खो रही, अभ्यन्तर छवि और ॥



अध्याय 126. धैर्य-भंग


1251


लाज-चटखनी युक्त है, मनोधैर्य का द्वार ।

खंडन करना है उसे, यह जो काम-कुठार ॥

1252


काम एक निर्दय रहा, जो दिल पर कर राज ।

अर्द्ध रात्रि के समय भी, करवाता है काज ॥

1253


काम छिपाने यत्न तो, मैं करती हूँ जान ।

प्रकट हुआ निर्देश बिन, वह तो छींक समान ॥

1254


कहती थी ‘हूँ धृतिमती’, पर मम काम अपार ।

प्रकट सभी पर अब हुआ, गोपनीयता पार ॥

1255


उनके पीछे जा लगें, जो तज गये सुजान ।

काम-रोगिणी को नहीं, इस बहुमति का ज्ञान ॥

1256


उनके पीछे लग रहूँ, चले गये जो त्याग ।

काम-रोग को यों दिया, यह मेरा बड़भाग ॥

1257


करते ये प्रिय नाथ जब, कामेच्छित सब काज ।

तब यह ज्ञात न था हमें, एक वस्तु है लाज ॥

1258


बहुमायामय चोर के, जो हैं नयमय बैन ।

मेरी धृति को तोड़ने, क्या होते नहिं सैन ॥

     1259


चली गई मैं रूठने, किन्तु हृदय को देख ।

वह प्रवृत्त है मिलन हित, गले लगी, हो एक ॥

      1260


अग्नि-दत्त मज्जा यथा, जिनका दिल द्रवमान ।

उनको प्रिय के पास रह, क्या संभव है मान ॥



अध्याय 127. उनकी उत्कंठा


1261


छू कर गिनते विरह दिन, घिस अंगुलियाँ क्षीण ।

तथा नेत्र भी हो गये, राह देख छवि-हीन ॥

1262


उज्ज्वल भूषण सज्जिते ! यदि मैं भूलूँ आज ।

गिरें बाँह से चुड़ियाँ, औ’ खोऊँ छवि-साज ॥

1263


विजय-कामना से चले, साथ लिये उत्साह ।

सो अब भी जीती रही, ‘लौटेंगे’ यों चाह ॥

1264


प्रेम सहित हैं लौटते, बिछुड़ गये जो नाथ ।

उमड़ रहा यों सोच कर, हृदय खुशी के साथ ॥

1265


प्रियतम को मैं देख लूँ, आँखों से भरपूर ।

फिर पीलापन स्कंध का, हो जायेगा दूर ॥

1266


प्रिय आवें तो एक दिन,यों कर लूँ रसपान ।

जिससे पूरा ही मिटे, दुःखद रोग निदान ॥

1267


नेत्र सदृश प्रिय आ मिलें, तो कर बैठूँ मान ?

या आलिंगन ही करूँ, या दोनों, हे प्राण ॥

1268


क्रियाशील हो युद्ध कर, राजा पावें जीत ।

सपत्नीक हम भोज दें, संध्या हित सप्रीत ॥

      1269


जिसे प्रवासी पुरुष के, प्रत्यागम का सोच ।

एक रोज़ है सात सम, लंबा होता रोज़ ॥

     1270


प्राप्य हुई या प्राप्त ही, या हो भी संयोग ।

हृदय भग्न हो चल बसी, तो क्या हो उपयोग ॥

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