TIRUKKURAL IN HINDI

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prasanna
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TIRUKKURAL IN HINDI

Post by prasanna » Wed Sep 17, 2008 10:28 am

अध्याय  128.   इंगित से बोध


1271


रखने पर भी कर छिपा, मर्यादा को पार ।

हैं तेरे ही नेत्र कुछ, कहने का तैयार ॥

1272


छवि भरती है आँख भर, बाँस सदृश हैं स्कंध ।

मुग्धा में है मूढ़ता, नारी-सुलभ अमंद ॥

1273


अन्दर से ज्यों दीखता, माला-मणि में सूत ।

बाला छवि में दीखता, कुछ संकेत प्रसूत ॥

1274


बद कली में गंध ज्यों, रहती है हो बंद ।

त्यों इंगित इक बंद है, मुग्धा-स्मिति में मंद ॥

1275


बाला ने, चूड़ी-सजी, मुझसे किया दुराव ।

दुःख निवारक इक दवा, रखता है वह हाव ॥

1276


दे कर अतिशय मिलन सुख, देना दुःख निवार ।

स्मारक भावी विरह का, औ’ निष्प्रिय व्यवहार ॥

1277


नायक शीतल घाट का, बिछुड़ जाय यह बात ।

मेरे पहले हो गयी, इन वलयों को ज्ञात ॥

1278


कल ही गये वियुक्त कर, मेरे प्यारे नाथ ।

पीलापन तन को लिये, बीत गये दिन सात ॥

      1279


वलय देख फिर स्कंध भी, तथा देख निज पाँव ।

यों उसने इंगित किया, साथ गमन का भाव ॥

      1280


काम-रोग को प्रगट कर, नयनों से कर सैन ।

याचन करना तो रहा, स्त्रीत्व-लब्ध गुण स्त्रैण ॥



अध्याय 129. मिलन-उत्कंठा


1281


मुद होना स्मृति मात्र से, दर्शन से उल्लास ।

ये गुण नहीं शराब में, रहे काम के पास ॥

1282


यदि आवेगा काम तो, बढ़ कर ताड़ समान ।

तिल भर भी नहिं चाहिये, करना प्रिय से मान ॥

1283


यद्यपि मनमानी करें, बिन आदर की सैन ।

प्रियतम को देखे बिना, नयनों को नहिं चैन ॥

1284


गयी रूठने री सखी, करके मान-विचार ।

मेरा दिल वह भूल कर, मिलने को तैयार ॥

1285


कूँची को नहिं देखते, यथा आंजते अक्ष ।

उनकी भूल न देखती, जब हैं नाथ समक्ष ॥

1286


जब प्रिय को मैं देखती, नहीं देखती दोष ।

ना देखूँ तो देखती, कुछ न छोड़ कर दोष ॥

1287


कूदे यथा प्रवाह में, बाढ़ बहाती जान ।

निष्फलता को जान कर, क्या हो करते मान ॥

1288


निन्दाप्रद दुख क्यों न दे, मद्यप को ज्यों पान ।

त्यों है, वंचक रे, हमें, तेरी छाती जान ॥

         1289


मृदुतर हो कर सुमन से, जो रहता है काम ।

बिरले जन को प्राप्त है, उसका शुभ परिणाम ॥

         1290


उत्कंठित मुझसे अधिक, रही मिलन हित बाल ।

मान दिखा कर नयन से, गले लगी तत्काल ॥



अध्याय 130. हृदय से रूठना


1291


उनका दिल उनका रहा, देते उनका साथ ।

उसे देख भी, हृदय तू, क्यों नहिं मेरे साथ ॥

1292


प्रिय को निर्मम देख भी, ‘वे नहिं हो नाराज़’ ।

यों विचार कर तू चला, रे दिल, उनके पास ॥

1293


रे दिल, जो हैं कष्ट में, उनके हैं नहिं इष्ट ।

सो क्या उनका पिछलगा, बना यथा निज इष्ट ॥

1294


रे दिल तू तो रूठ कर, बाद न ले सुख-स्वाद ।

तुझसे कौन करे अभी, तत्सम्बन्धी बात ॥

1295


न मिल तो भय, या मिले, तो भेतव्य वियोग ।

मेरा दिल है चिर दुखी, वियोग या संयोग ॥

1296


विरह दशा में अलग रह, जब करती थी याद ।

मानों मेरा दिल मुझे, खाता था रह साथ ॥

1297


मूढ हृदय बहुमति रहित, नहीं भूलता नाथ ।

मैं भूली निज लाज भी, पड़ कर इसके साथ ॥

1298


नाथ-उपेक्षा निंद्य है, यों करके सुविचार ।

करता उनका गुण-स्मरण, यह दिल जीवन-प्यार ॥

         1299


संकट होने पर मदद, कौन करेगा हाय ।

जब कि निजी दिल आपना, करता नहीं सहाय ॥

        1300


बन्धु बनें नहिं अन्य जन, है यह सहज, विचार ।

जब अपना दिल ही नहीं, बनता नातेदार ॥


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